धीरे से उम्र गुजरी है
दबें कदमों की आहट से
किसी को पता ना चलें
तुम कहां से आये हो
पुरानी सी कोई बात हो चली
जैसे स्कूल के दिन
पतंग उड़ाने का लुत्फ
बारिश में नहाना
जोर से चिल्लाना
देर से उठना
रात तक जागना
गली में बैठना
और जाने क्या-क्या
अब एक रूटिन है
बस कुछ और नहीं
हम बढ़े हो गये।
इरशाद
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बचपन की तो बात ही निराली है।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
yahi wo daldal hai jise samajhdaari kahate hain ya yun kah le ki ham bade ho gaye hain
ReplyDeleteपहली बात कि बड़ी मासूमियत से आपने बड़े होने के साथ खोते हुए बचपन के दर्द को बयान किया है. दूसरी बात कि मैं आपके इस बात में यकीन रखता हूँ कि हिन्दी और उर्दु दो धाराओं वाली हिन्दुस्तानी एक ही "लोगों" की साझी थाती हैं. इसीलिये मैंने उर्दु स्क्रिप्ट को विशेष रूप से सीखा ताकी अपनी भाषा के उस aspect को जान सकूँ जो देवनागरी में उपलब्ध नहीं है. लोक-स्तर पर ये दो दाराएँ एक हो जाती हैं.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteइरशाद साहब,
ReplyDeleteनज्म पसंद आई आपकी.
मुबारकबाद
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
इरशाद भाई बहुत गहराइ है...
ReplyDelete