Thursday, April 30, 2009

बचपन

धीरे से उम्र गुजरी है
दबें कदमों की आहट से
किसी को पता ना चलें
तुम कहां से आये हो
पुरानी सी कोई बात हो चली
जैसे स्कूल के दिन
पतंग उड़ाने का लुत्फ
बारिश में नहाना
जोर से चिल्लाना
देर से उठना
रात तक जागना
गली में बैठना
और जाने क्या-क्या
अब एक रूटिन है
बस कुछ और नहीं
हम बढ़े हो गये।
इरशाद

6 comments:

  1. yahi wo daldal hai jise samajhdaari kahate hain ya yun kah le ki ham bade ho gaye hain

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  2. पहली बात कि बड़ी मासूमियत से आपने बड़े होने के साथ खोते हुए बचपन के दर्द को बयान किया है. दूसरी बात कि मैं आपके इस बात में यकीन रखता हूँ कि हिन्दी और उर्दु दो धाराओं वाली हिन्दुस्तानी एक ही "लोगों" की साझी थाती हैं. इसीलिये मैंने उर्दु स्क्रिप्ट को विशेष रूप से सीखा ताकी अपनी भाषा के उस aspect को जान सकूँ जो देवनागरी में उपलब्ध नहीं है. लोक-स्तर पर ये दो दाराएँ एक हो जाती हैं.

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  3. इरशाद साहब,
    नज्म पसंद आई आपकी.
    मुबारकबाद
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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